Friday, 22 January 2016

क्या 10 डॉलर में मिलेगा एक बैरल तेल? अपनी जरुरत का अस्सी फीसदी कच्चा तेल आयात करने वाले भारत के लिए यह स्थिति अच्छी है क्योंकि तेल कंपनियों को सस्ते कच्चे तेल के चलते दो लाख करोड़ रूपए का फायदा होगा।

क्या 10 डॉलर में मिलेगा एक बैरल तेल?

Standard Chartered became the latest major bank to downgrade its oil outlook to $10


अपनी जरुरत का अस्सी फीसदी कच्चा तेल आयात करने वाले भारत के लिए यह स्थिति अच्छी है क्योंकि तेल कंपनियों  को सस्ते कच्चे तेल के चलते दो लाख करोड़ रूपए का फायदा होगा


Standard Chartered became the latest major bank to downgrade its oil outlook to $10, joining the likes of Goldman Sachs, RBS and Morgan Stanley in making ultra-bearish calls as prices have collapsed by 15pc this year.


भारत को कच्चा तेल अब रिकॉर्ड कम कीमतों सिर्फ 24.47  डॉलर पर बैरल मिल रहा ,
20 डॉलर प्रति बैरल की और कम होती  कीमतें 
भारत ने तीन भंडार गृह बनाने की करी तैयारी , विशाखापत्तनम में भंडार ग्रह लगभग बनकर तैयार 


Global Crude oil price of Indian Basket was US$ 24.47 per bbl on 21.01.2016

The international crude oil price of Indian Basket as computed/published today by Petroleum Planning and Analysis Cell (PPAC) under the Ministry of Petroleum and Natural Gas was US$ 24.47 per barrel (bbl) on 21.01.2016. This was higher than the price of US$ 24.03 per bbl on previous publishing day of 20.01.2016.
In rupee terms, the price of Indian Basket increased to Rs 1665.18 per bbl on 21.01.2016 as compared to Rs 1633.49 per bbl on 20.01.2016. Rupee closed weaker at Rs 68.06 per US$ on 21.01.2016 as against Rs 67.98 per US$ on 20.01.2016. The table below gives details in this regard:

Particulars
Unit
Price on January 21, 2016(Previous trading day i.e. 20.01.2016)
Pricing Fortnight for 16.01.2016
(Dec 30 to Jan 13, 2016)
Crude Oil (Indian Basket)
($/bbl)
24.47            (24.03)
30.63
(Rs/bbl
1665.18         (1633.49)
2040.26
Exchange Rate
(Rs/$)
68.06             (67.98)
66.61


BBC News :-

बिज़नेस रिपोर्टर, बीबीसी न्यूज़

तेल के दाम फिर गिरकर 28 डॉलर प्रति बैरल से भी नीचे चले गए हैं.
बेंट क्रूड के दाम 27.67 डॉलर प्रति बैरल पर पहुंच गए हैं जो 2003 के बाद सबसे कम दाम हैं, जबकि अमरीकी क्रूड के दाम 28.36 डॉलर प्रति बैरल तक गिर गए हैं.
बहुत से विश्लेषकों ने 2016 के लिए तेल की कीमतों के अनुमान को कम कर दिया है. मॉर्गन स्टेनली के विश्लेषकों का कहना है कि अगर चीन अपनी मुद्रा का और अवमूल्यन करता है तो तेल के दाम 20 डॉलर प्रति बैरल के आसपास तक भी फिसल सकते हैं.
रॉयल बैंक ऑफ़ स्कॉटलैंड के अर्थशास्त्रियों का कहना है कि तेल 16 डॉलर तक गिर सकता है जबकि स्टैंडर्ड चार्टर्ड का अनुमान है कि इसके दाम 10 डॉलर प्रति बैरल तक गिर जाएंगे.
तेल के दाम 30 डॉलर प्रति बैरल से नीचे गिरने की वजहें क्या हो सकती हैं. इसमें कैसे सुधार आ सकता है?


वैसे तो तेल के दाम गिरने की साफ़ वजह है आपूर्ति का बहुत ज़्यादा और मांग का कम होना.
चीन की आर्थिक रफ़्तार कम होने से आमतौर पर वस्तुओं की मांग कम हो गई है जबकि ओपेक देशों में से एक तिहाई तेल का उत्पादन करने वाले सऊदी अरब का ज़ोर उत्पादन कम कर क़ीमतें बढ़ाने की बजाय अपने बाज़ार हिस्से को बनाए रखने पर है.
ठीक इसी बीच अमरीका के शेल तेल का उत्पादन बढ़ने का मतलब यह हुआ कि अब वह तेल का आयात कम करेगा. इससे अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में तेल की मांग कम होती है.
इससे गैर-अमरीकी और गैर-ओपेक तेल उत्पादकों की मुश्किलें बढ़ जाती हैं, जो कटौती का सामना कर रहे हैं, ख़ासकर उत्तरी सागर में.
अब सवाल यह है कि क्या उत्तरी सागर में 35 डॉलर प्रति बैरल से कम पर तेल का उत्पादन व्यावहारिक है?
बीपी, शेल, टोटल और एक्सॉन मोबिल जैसी बड़ी तेल कंपनियों ने इस स्थिति का सामना करने के लिए अरबों पाउंड के निवेश में कटौती की है और हज़ारों नौकरियां ख़त्म कर दी हैं.
हालांकि चार्ल्स स्टेनली के मुख्य अर्थशास्त्री जेरेमी बैटस्टोन-कार चेताते हैं कि इससे ज़्यादा दाम गिरे तो बड़ी कंपनियों को सचमुच में नुक़सान होने लगेगा


वो कहते हैं कि इन बड़ी कंपनियों पर असर का पहला लक्षण तो यह दिखेगा कि वो निवेशकों को मिलने वाले लाभांश में कटौती करेंगी, जिससे वो अब तक बचते रहे हैं.
इस बीच वुड मैकेन्ज़ी के तेल विश्लेषक एलन गेल्डेर कहते हैं कि तेल की मौज़ूदा क़ीमतों पर भी उत्तरी सागर के बहुत से तेल उत्पादकों को सचमुच में तकलीफ़ होने लगी है.
वो कहते हैं कि उत्तरी सागर में काम करने वाली ये कंपनियां किसी तरह लागत में कमी करके बच पाई हैं. लेकिन गेल्डेर चेताते हैं कि वहां अब भविष्य में निवेश के लिए पैसा नहीं बचा है.
कच्चे तेल के सही दाम कितने होने चाहिए?
डंडी विश्वविद्यालय के सेवानिवृत्त प्रोफ़ेसर और मध्य पूर्व के विशेषज्ञ पॉल स्टीवेन्स कहते हैं कि तेल के दाम सैद्धांतिक रूप से 20 से 25 डॉलर प्रति बैरल तक गिर सकते हैं.
क्यों? यह एक सामान्य नज़रिया हो सकता है लेकिन उन्हें लगता है कि ज़्यादातर शेल तेल उत्पादक वर्तमान तेल के दामों को झेल सकते हैं.
उनका अनुमान है शेल तेल की उत्पादन लागत 40 डॉलर प्रति बैरल पड़ती है, लेकिन जब तक इसके दाम 25 डॉलर प्रति बैरल तक नहीं आ जाती वह उत्पादन करते रहेंगे.
हालांकि गेल्डेर को ऐसा नहीं लगता कि ज़्यादा अमरीकी तेल उत्पादक 50 डॉलर बैरल से नीचे उत्पादन रख पाएंगे.


वह कहते हैं, "अमरीका में कुछ स्थान हैं जहां ऑपरेटर कम दाम में भी उत्पादन जारी रख सकते हैं लेकिन 30 डॉलर से नीचे यह किफ़ायती नहीं है."
गेल्डेर कहते हैं, "बहुत बड़ी संख्या में तेल उत्पादक इस स्तर पर ज़िंदा नहीं रह सकते. वेनेज़ुएला, अल्जीरिया, नाइजीरिया में गंभीर वित्तीय समस्याएं पैदा हो रही हैं और दाम बढ़ने, लोगों के बेरोज़गार होने से राजनीतिक असंतोष पैदा हो रहा है."
इस दाम पर कितना तेल ख़रीदा जा रहा है?
प्रोफ़ेसर स्टीवेन्स कहते हैं कि दुनिया भर में तेल की आपूर्ति इतनी ज़्यादा है कि देशों के पास भंडारण की क्षमता ख़त्म हो रही है. दुनिया में सबसे ज़्यादा भंडारण क्षमता अमरीका के पास है लेकिन उसके पास भी अब इसे रखने की कोई जगह नहीं बची है. और ऐसा हाल सिर्फ़ उसका नहीं है.
वह कहते हैं, "भंडारण क्षमता का करीब-करीब पूरा इस्तेमाल हो चुका है और लोग अब टैंकर ख़रीदने के बारे में सोच रहे हैं ताकि भंडारण के लिए उनका इस्तेमाल हो सके."
"लेकिन अगर आपूर्ति मांग से ज़्यादा रही तो वह एक ही काम कर सकते हैं कि तेल को बेच दें. इससे फिर दाम और गिरेंगे."


गेल्डेर का सोचना कुछ और है. वह कहते हैं कि अभी यह साफ़ नहीं कि अमरीका के भंडारण पूरे भर चुके हैं.
वह कहते हैं, "हम अमरीकी और यूरोपीय भंडारण स्तर के बारे में जानते हैं लेकिन भारत और चीन आपूर्ति में बाधा आने की सूरत में तेल का भंडारण रणनीतिक रूप से कर रहे हैं."
बैटस्टोन-कार कहते हैं, "जब तक उत्पादन में निश्चित कमी नहीं की जाती कुछ भी नहीं बदलने वाला. और कोटा में संभावित कटौती के लिए हमें जून में होने वाली ओपेक की अगली बैठक तक इंतज़ार करना होगा."
"और ऐसा ऐसे समय में हो रहा है जब आर्थिक गतिविधियां पहले ही धीमी हो रही हैं, जिससे संकेत मिलते हैं कि मांग ज़्यादा नहीं है."
प्रोफ़ेसर स्टीवेन्स चेतावनी देते हैं कि तेल के दामों में इसलिए गिरे हैं क्योंकि '1982 के बाद से पहली बार तेल का मुक्त व्यापार हो रहा है'.
वह कहते हैं कि ऐसा इसलिए हो रहा है क्योंकि सऊदी अरब ने दाम को कायम रखने के लिए उत्पादन कम करने का फ़ैसला नहीं किया- जैसा कि पहले अति आपूर्ति के समय किया गया था.
सऊदी अरब बनाम ईरान का तेल के दामों पर क्या असर पड़ेगा?

करीब चार साल पहले अमरीका ने ईरान पर तेल के निर्यात पर प्रतिबंध लगाए थे जिससे कीमत को कुछ आधार मिला और सऊदी अरब बाज़ार के बड़े हिस्से पर कब्ज़ा कर सका, जिसे छोड़ने को वह अब तैयार नहीं है.
वुड मैकेन्ज़ी की एक रिपोर्ट के अनुसार सऊदी अरब ईरान को जगह देने के लिए उत्पादन कम नहीं करेगा, जो कुछ स्रोतों के अनुसार कुछ हफ़्ते में तेल का निर्यात शुरू कर सकता है.
रिपोर्ट में कहा गया है, "सऊदी अरब नवंबर, 2014 की ओपेक बैठक से ही कह रहा है कि जब तक रूस, ईरान और इराक़ जैसे अन्य तेल उत्पादक अपना तेल उत्पादन नहीं घटाते तेल की कीमत को बनाए रखने के लिए उसका उत्पादन घटाने का कोई इरादा नहीं है."
"सऊदी अरब और ईरान के बीच बढ़ते तनाव से हमारे इस विचार की ही पुष्टि होती है कि सऊदी अरब ईरान को बाज़ार में उसका हिस्सा देने के लिए उत्पादन घटाने को तैयार नहीं है."
प्रोफ़ेसर स्टीवेन्स कहते हैं, "मध्य पूर्व में तनाव बहुत ज़्यादा है. मुझे नहीं लगता कि 1918 में ऑटोमन साम्राज्य के पतन के बाद से स्थिति कभी इतनी ख़राब रही है."


ऐसी अनिश्चितता सामान्यतः तेल की कीमतों में तेज़ी लाती है, लेकिन नए साल में दाम बढ़ने के बजाय गिरते ही जा रहे हैं.
गेल्डेर कहते हैं कि ज़्यादातर व्यापारियों को आशंका है कि सऊदी अरब और ईरान एक-दूसरे से इस कदर होड़ करेंगे कि आपूर्ति गंभीर रूप से प्रभावित हो सकती है.
फिर मांग में कमी आने से, विशेषकर चीन और उभरते बाज़ारों में, तेल के दाम बढ़ने की गुंजाइश कम ही नज़र आती है.
इन सबका हमारे लिए क्या मतलब है?
इसका सीधा अर्थ यह हुआ कि तेल के दाम कम होंगे, हालांकि पेट्रोल पंप से आपको मिलने वाले तेल पर यह गिरावट पूरी तरह नज़र नहीं आएगी.
यह भी ध्यान रखें कि सरकारें उत्पादन शुल्क से लेकर वैट तक विभिन्न तरह के करों से यह इंतज़ाम कर रही हैं.
स्वाभाविक है कि जब लोगों को तेल पर ज़्यादा पैसा ख़र्च नहीं करना पड़ता तो वह इसे कहीं और लगाएंगे जिससे अर्थव्यवस्था को रफ़्तार देने की एक संभावना बनती है.

हालांकि अगर पेट्रोल से चलने वाली कारें कम ख़र्च में चलती हैं तो इसका अर्थ यह हुआ कि वह इसके विकल्प, जैसे कि इलेक्ट्रिक वाहनों, में निवेश करने के बारे में कम सोचेंगे. इस तरह दीर्घकाल में पेट्रोल के कम दाम पर्यावरण के लिए हानिकारक रहेंगे.



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